Friday, February 13, 2009

मौन

चारों तरफ़ है चेतना,
भीतर सुलगती वेदना,
वो मौन है !
आचरण विनम्र किंतु,
मिल रही अव्हेलना,
वो मौन है !

आसमान भी चुप्पी है साधे,
सारी दिशायें मूक हैं,
वो मौन है !
व्यथाओं से पनपता,
दर्द भी अचूक है,
वो मौन है !

रोया नही गया नही,
अश्रु बाहर लाया नही,
वो मौन है !
विष सी पीड़ा सह के भी,
चीखा नही जताया नही,
वो मौन है !

सब शून्य है, निःशब्द है,
न आस है, न प्रयास है,
कर्म-वचन हैं खोखले,
मन हीरा कुंठित सा है,
स्वप्न होलिका है जल चुकी,
चिता स्वयं भी स्तब्ध है,
मिट चुके हैं गीत सारे,
न कोई आवाज़ है न पुकार है,
वो मौन है !

चारों तरफ़ है चेतना,
भीतर सुलगती वेदना,
और वो, बस मौन है !

मैं सागर किनारे बैठ कर...

मैं सागर किनारे बैठ कर, वक्त की रेत में
खाक़ में मिल चुका एक प्यार देखता हूँ
आहों की तपिश में सुलगता
एक बेनूर इंतज़ार देखता हूँ

तपस्या की विफलता ने, कुछ ऐसा विचिलित कर दिया
की आशाओं के गागर में, एक बूँद आस खोजता हूँ
मेरे अपनों के मुझसे अरमान हैं कुछ ऐसे
की उनकी आंखों में एक सागर विश्वास देखता हूँ

सफर में यूँ भौचक्क खड़ा में
आपने थमें हुए कदम अनायास देखता हूँ
दम तोड़ रही है मेरी लहुलुहान मंजिल
उसके कलेजे में मैं अपनी आखिरी श्वास देखता हूँ

तुमसे कितना दूर हूँ में, की मजबूर हूँ मैं
इश्वर का ख़ुद से खिलवाड़ देखता हूँ
आँहों की तपिश में सुलगता, अपना बेनूर इंतज़ार देखता हूँ
खाक़ में मिल चुका एक प्यार देखता हूँ
मैं सागर किनारे बैठ कर, वक्त की रेत में...