Friday, February 13, 2009

मैं सागर किनारे बैठ कर...

मैं सागर किनारे बैठ कर, वक्त की रेत में
खाक़ में मिल चुका एक प्यार देखता हूँ
आहों की तपिश में सुलगता
एक बेनूर इंतज़ार देखता हूँ

तपस्या की विफलता ने, कुछ ऐसा विचिलित कर दिया
की आशाओं के गागर में, एक बूँद आस खोजता हूँ
मेरे अपनों के मुझसे अरमान हैं कुछ ऐसे
की उनकी आंखों में एक सागर विश्वास देखता हूँ

सफर में यूँ भौचक्क खड़ा में
आपने थमें हुए कदम अनायास देखता हूँ
दम तोड़ रही है मेरी लहुलुहान मंजिल
उसके कलेजे में मैं अपनी आखिरी श्वास देखता हूँ

तुमसे कितना दूर हूँ में, की मजबूर हूँ मैं
इश्वर का ख़ुद से खिलवाड़ देखता हूँ
आँहों की तपिश में सुलगता, अपना बेनूर इंतज़ार देखता हूँ
खाक़ में मिल चुका एक प्यार देखता हूँ
मैं सागर किनारे बैठ कर, वक्त की रेत में...

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