Sunday, October 11, 2009

अब के वो पूछे तो कह देना

अब के वो पूछे तो कह देना
मेरी यादों में भटकने वाले
मेरी उम्मीदों में खटकने वाले
मेरी आंखों को देख

मेरी आंखों में बिखरने वाले
मेरी साँसों में निख़रने वाले
मेरी रातों को देख

मेरी रातों में चमकने वाले
मेरे हाथों में दमकने वाले
मेरे अल्फाज़ को देख

मेरे अल्फ़ाज़ों में झलकने वाले
मेरे अंदाज़ में खनकने वाले
मेरे जाम को देख

मेरे जाम में छलकने वाले
मेरे सीने में सुलगने वाले

की वो मेरे ग़म से अनजान है
और मेरे हर दर्द से बेदख़ल

Monday, August 3, 2009

बेबस जान...

बारिश की बूंदों मैं छुपी
कुछ आंसुओं की दास्ताँ है
दुखों की तपिश मैं जल कर
मर चुकी हर भावना है

एक आस के सहारे जो
टकटकी बांधे खड़ा था
अब भयंकर काल का
कर रहा वो सामना है

थक चुके हैं पाँव उसके
आत्मा भी षीड़ है
झुक चुके है काँधे उसके
ह्रदय मैं धधकता पीड़ है

हाथ जोड़े, भीक मांगे
किस तरह वो प्राण त्यागे
काल कैसा दुष्ट देखो
वेदना पर हँस रहा है

हर श्वास बोझिल हो चली
हर क्षण प्रतिशोध की ज्वाला जली
चीत्कार बंद कर
अब खड़ा वो मूक है
वक्त की अग्नि मैं देखो
सुलगता उसका शोक है

Tuesday, July 14, 2009

एक चोट

भीगी सी पलकें मीचती...
रोंधि सी आवाज़ है चीखती...
स्वप्न द्वार पर शून्य है...
हृदय घात् पर शुब्ध है...

कोई मुझे अब आस देदो...
मैं जी सकूँ एक श्वास देदो...
मैं आघात से अनजान था...
और अब चोट से बेजान हूँ...

अपमान का जो बीज है...
हर भावना को खा चुका...
यह दर्द कैसा है मिला...
जो हर ख्वाब को मिटा चुका...

अब प्रयास हिसाब है माँगते...
किंतु प्रेम अभी भी मूक है...
जहाँ हसी थी खिल रही...
वहीँ अब सिसकता शोक है...

क्यूँ प्रतिशोध ह्यदय मैं जल रहा...
क्यूँ क्रोध तांडव कर रहा...
क्यूँ सहनशीलता मर चुकी...
क्यूँ द्वेष है इठला रहा...

चोट का गहरा घाव है...
और बस घाव ही मुझे दिख रहा...
घाव की दवा भी एक चोट है...
जिसकी खोज में मैं जल रहा...



Friday, February 13, 2009

मौन

चारों तरफ़ है चेतना,
भीतर सुलगती वेदना,
वो मौन है !
आचरण विनम्र किंतु,
मिल रही अव्हेलना,
वो मौन है !

आसमान भी चुप्पी है साधे,
सारी दिशायें मूक हैं,
वो मौन है !
व्यथाओं से पनपता,
दर्द भी अचूक है,
वो मौन है !

रोया नही गया नही,
अश्रु बाहर लाया नही,
वो मौन है !
विष सी पीड़ा सह के भी,
चीखा नही जताया नही,
वो मौन है !

सब शून्य है, निःशब्द है,
न आस है, न प्रयास है,
कर्म-वचन हैं खोखले,
मन हीरा कुंठित सा है,
स्वप्न होलिका है जल चुकी,
चिता स्वयं भी स्तब्ध है,
मिट चुके हैं गीत सारे,
न कोई आवाज़ है न पुकार है,
वो मौन है !

चारों तरफ़ है चेतना,
भीतर सुलगती वेदना,
और वो, बस मौन है !

मैं सागर किनारे बैठ कर...

मैं सागर किनारे बैठ कर, वक्त की रेत में
खाक़ में मिल चुका एक प्यार देखता हूँ
आहों की तपिश में सुलगता
एक बेनूर इंतज़ार देखता हूँ

तपस्या की विफलता ने, कुछ ऐसा विचिलित कर दिया
की आशाओं के गागर में, एक बूँद आस खोजता हूँ
मेरे अपनों के मुझसे अरमान हैं कुछ ऐसे
की उनकी आंखों में एक सागर विश्वास देखता हूँ

सफर में यूँ भौचक्क खड़ा में
आपने थमें हुए कदम अनायास देखता हूँ
दम तोड़ रही है मेरी लहुलुहान मंजिल
उसके कलेजे में मैं अपनी आखिरी श्वास देखता हूँ

तुमसे कितना दूर हूँ में, की मजबूर हूँ मैं
इश्वर का ख़ुद से खिलवाड़ देखता हूँ
आँहों की तपिश में सुलगता, अपना बेनूर इंतज़ार देखता हूँ
खाक़ में मिल चुका एक प्यार देखता हूँ
मैं सागर किनारे बैठ कर, वक्त की रेत में...