Tuesday, July 14, 2009

एक चोट

भीगी सी पलकें मीचती...
रोंधि सी आवाज़ है चीखती...
स्वप्न द्वार पर शून्य है...
हृदय घात् पर शुब्ध है...

कोई मुझे अब आस देदो...
मैं जी सकूँ एक श्वास देदो...
मैं आघात से अनजान था...
और अब चोट से बेजान हूँ...

अपमान का जो बीज है...
हर भावना को खा चुका...
यह दर्द कैसा है मिला...
जो हर ख्वाब को मिटा चुका...

अब प्रयास हिसाब है माँगते...
किंतु प्रेम अभी भी मूक है...
जहाँ हसी थी खिल रही...
वहीँ अब सिसकता शोक है...

क्यूँ प्रतिशोध ह्यदय मैं जल रहा...
क्यूँ क्रोध तांडव कर रहा...
क्यूँ सहनशीलता मर चुकी...
क्यूँ द्वेष है इठला रहा...

चोट का गहरा घाव है...
और बस घाव ही मुझे दिख रहा...
घाव की दवा भी एक चोट है...
जिसकी खोज में मैं जल रहा...



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